द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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इब्रानियों 5:7 में, हमें बताया गया है कि यीशु ने “अपनी देह मे रहने के दिनों में” कैसे प्रार्थना की थी। “उसने मृत्यु से बचने के लिए ऊंचे स्वर से पुकारकर और आँसू बहा-बहा कर प्रार्थनाएँ की थी”। यह उसके पृथ्वी के अंत के उन दिनों की बात नहीं है जब उसने सिर्फ गतसमनी में ही प्रार्थना की थी। परमेश्वर का वचन सटीक रूप में यह बताता है कि उसने इस तरह की प्रार्थना “अपनी देह मे रहने के दिनों में की थी”“दिनों” का अर्थ उसके पृथ्वी पर बिताएँ पूरे 33½ वर्ष थे। जिस मृत्यु से बचाए जाने की प्रार्थना यीशु ने की थी (और जैसा की यह पद बताता है कि उसे बचा लिया गया), वह शारीरिक नहीं बल्कि आत्मिक मृत्यु थी (जो केवल एक पाप करने से होती है)। यीशु ने यह प्रार्थना की थी कि वह एक पाप भी न करे। और इस प्रार्थना के प्रति वह इतना ईमानदार था कि यह उसने ऊंचे स्वर में और आँसू बहा-बहा कर की थी। यही वजह थी कि उसने कभी कोई पाप नहीं किया था। अनेक लोग यह सोचते है कि यीशु पाप पर इसलिए जय प्राप्त कर सका क्योंकि वह परमेश्वर का पुत्र था। नहीं। वह पाप पर इसलिए जयवंत हुआ क्योंकि उसने पाप से बचने के लिए ऊंचे स्वर से व आँसू बहा-बहा कर प्रार्थनाएं की थी। वह धार्मिकता से प्रेम और पाप से घृणा करने में अति निष्ठावान होने की वजह से ही ऐसे मनोवेग के साथ प्रार्थना कर सका था – और उसके पिता ने अन्य विश्वासियों से ज्यादा उसका अभिषेक ऐसी सामर्थ से इसलिए किया क्योंकि वे उसकी तरह प्रार्थना नहीं करते (इब्रानियों 1:9)

ज्यादातर विश्वासी पाप को हलके तरीके से लेते है और वे पहले से ही सोच लेते है कि वे मनुष्य है इसलिए वे पाप पर कभी जय नहीं पा सकते। लेकिन यह जय न पाने का कारण नहीं है। इसका कारण यह है कि वे ऊंचे स्वर से और आँसू बहा-बहा कर प्रार्थना नहीं करते। ऊंचे स्वर से और आँसू बहा-बहा कर प्रार्थना करने के लिए ही यीशु एकांत स्थान ढूंढता था (लूका 5:16)। जब हम शहर में रहते है, तो एकांत स्थान पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन मैंने यह पाया है कि मैं चाहे कहीं भी होऊँ, मैं अपने मुख से कोई स्वर निकाले बिना ही अपने हृदय में ही ऊंचे स्वर मे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता हूँ। मैं अपने विचार, शब्द और कर्म में शुद्ध बने रहने के लिए पुकार सकता हूँ। अगर मैं किसी पाप में गिरु, तो मैं आँसू बहाना चाहूँगा। यीशु कभी पाप में नहीं गिरा फिर भी उसने आँसू बहाए। यह बात मुझे वास्तव में नम्र करती है। शुद्ध बने रहने की धुन यीशु को खाती रहती थी और उसमे आग लगाए रखती थी। इस वजह से ही वह पृथ्वी पर परमेश्वर की संपूर्ण इच्छा पूरी कर सका।

पवित्र -आत्मा की भरपुरी हमारे भीतर शुद्धता के लिए एक धुन उत्पन्न करती है। तब हम यीशु के उदाहरण का अनुसरण कर सकते है। यीशु शारीरिक मृत्यु से कभी नहीं डरा। लेकिन वह आत्मिक मृत्यु से डरता था; इसलिए वह कभी पाप की गंध भी अपने अंदर प्रवेश नहीं करने देना चाहता था। गतसमनी के बाग में, जब वह प्याला पीने से इनकार कर रहा था तब असल में वह क्या प्रार्थना कर रहा था? वह प्याला क्रूस पर लटकते समय उसके पिता से 3 घंटे तक संगति का टूट जाना था – यह वह समय था जब वह हमारे पापों को अपने ऊपर उठाने वाला था। यह आत्मिक मृत्यु है। और यीशु इसलिए पाप से इतनी घृणा करता था क्योंकि पाप पिता के साथ उसकी संगति को तोड़ सकता था।

लेकिन गतसमनी में पिता ने उससे कहा कि अगर वह दूसरे लोगों को पिता की संगति से अनंतकाल के लिए नरक में दूर होने से बचाना चाहता है, तो उसे 3 घंटे तक इस संगति के टूटने को स्वीकार करना होगा। और हमारे लिए उसके अपार प्रेम के कारण, यीशु ने इस भारी कीमत को चुकाना स्वीकार कर लिया। लेकिन अपने पूरे जीवन भर उसने पिता से अपनी संगति के टूट जाने के खिलाफ संघर्ष किया था - जो पाप द्वारा टूट सकती थी। पाप की हल्की सी भी गंध तुरंत परमेश्वर के साथ संगति तोड़ देती है। अगर हम संगति को मूल्यावान जानते है तो हम भी ऊंचे स्वर से और आँसू बहाते हुए यह प्रार्थना करेंगे कि हमारे अंदर कड़वाहट, आत्मिक घमंड, अशुद्धता, ईर्ष्या, धन का प्रेम, घृणा या ऐसी किसी भी बुराई की गंध न हो जो परमेश्वर की सिद्ध इच्छा से बाहर हो।

हम पाप को हल्के तौर पर इसलिए लेते है क्योंकि हमारे अंदर परमेश्वर की सिद्ध इच्छा में रहने की उमंग नहीं है। पवित्रता ज़्यादातर मसीहों की मुख्य उमंग नहीं है। उनकी उमंग ज़्यादातर प्रभु के लिए या जरूरतमंद लोगों की सेवा करना होता है। लेकिन यह एक सांसारिक परिकल्पना हो सकती है। मरियम ने यीशु की संगति की खोज किया, लेकिन मार्था ने यीशु की सेवा करने का चुनाव किया। और यीशु ने मार्था को घुड़कते हुए कहा था कि मरियम ने जो चुना है, केवल वही आवश्यक है (लूका 10:42)। यह पवित्रता है जो हमारी सेवा को प्रभावशाली बनाती है।