द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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मसीहियों के बीच इस बात को लेकर बहुत गलतफहमी है कि दूसरों का न्याय करना सही है या नहीं - "न्याय" शब्द की गलतफहमी के कारण।

विश्वासियों के रूप में, हमें दूसरों का मूल्यांकन इस अर्थ में करना चाहिए कि हमें लोगों को परखना चाहिए। परमेश्वर का वचन कहता है कि, जब हम किसी को उपदेश देते हुए सुनते हैं, तो हमें "उसके संदेश पर न्याय करना चाहिए" (1 कुरिं.14:29)। इसलिए पवित्र आत्मा वास्तव में हमें हर किसी के उपदेश का न्याय करने की आज्ञा देता है। यही एकमात्र तरीका है जिससे हम आज मसीही जगत के कई धोखेबाज प्रचारकों से धोखा खाने से बच सकते हैं।

परमेश्वर का वचन यह भी कहता है, "हर एक आत्मा की प्रतीति न करो, परन्तु आत्माओं को परखो कि वे परमेश्वर की ओर से हैं कि नहीं, क्योंकि जगत में बहुत से झूठे भविष्यद्वक्ता निकल आए हैं" (1 यूहन्ना 4:1)।

यीशु ने हमें यह भी बताया कि हमें दूसरों का न्याय कैसे करना है। उसने कहा, "अपने न्याय में ईमानदार रहो और ऊपरी तौर पर और दिखावे से निर्णय न करो, बल्कि निष्पक्षता और धर्मपूर्वक न्याय करो" (यूहन्ना 7:24)।

तो फिर यीशु का क्या मतलब था, जब उसने यह भी कहा, "न्याय मत करो" (मत्ती 7:1 में)?

"न्याय" शब्द का अर्थ "दोषित करना" (मूल ग्रीक में) भी है। इस वचन का बाइबिल अनुवाद इस प्रकार है: "दूसरों को दोषित मत करो, ऐसा न हो कि तुम स्वयं दोषी ठहराए जाओ" (मत्ती 7:1)।

और यीशु ने अपने विषय में कहा, "मैं किसी को दोषी नहीं ठहराता या सज़ा नहीं देता" (यूहन्ना 8:15)।

इसलिए दूसरों की निंदा करना और उन्हें सजा देना (मौखिक रूप से या हमारे मन में) निषिद्ध है। ऐसा करने का अधिकार केवल परमेश्वर को है।

लेकिन हमें परीक्षण करना और परखना होगा।

यीशु के बारे में भविष्यवाणी की गई थी कि वह "अपनी आँखों से देखा या कानों से सुनने " के आधार पर कभी किसी का न्याय नहीं करेगा, बल्कि धर्म से लोगों का न्याय करेगा (यशा 11:3, 4)। हमें भी उसके उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए और केवल जो हम देखते या सुनते हैं उसके आधार पर किसी भी चीज़ या व्यक्ति का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए। हमें किसी मामले की पूरी तरह से जांच करनी चाहिए और फिर बिना किसी पक्षपात के निष्पक्षता से न्याय करना चाहिए।

परमेश्वर के परिवार के सदस्यों के रूप में, हमें यह भी बताया गया है कि हमें पहले स्वयं का न्याय करना चाहिए (1 पतरस 4:17)। लेकिन हमें अपने अंदर देखकर खुद का न्याय नहीं करना चाहिए। नहीं, हमें यीशु के उदाहरण को देखना है और उसके जीवन के प्रकाश में, अपनी कमियों को देखना है - और फिर स्वयं का न्याय करना है। जैसा लिखा है, "हे प्रभु, तेरे प्रकाश में हम प्रकाश पाएँगे" (भजन 36:9)।

परमेश्वर के प्रकाश में स्वयं को आंकना सबसे महत्वपूर्ण पाठों में से एक है जिसे हमें मसीही जीवन में सीखना चाहिए। बहुत से लोग इसे कभी नहीं सीखते हैं और इसलिए वे कभी कोई आत्मिक प्रगति नहीं कर पाते हैं।

यहां एक अद्भुत वादा है, कि जो लोग अब ईमानदारी से खुद का न्याय करते हैं, उनका अंतिम दिन में परमेश्वर द्वारा न्याय नहीं किया जाएगा: "यदि हम खुद को सही तरीके से आंकते हैं, तो हमें दोषी नहीं ठहराया जाएगा" (1 कुरिं.11:31)।

हालाँकि हम दूसरों का न्याय नहीं करते हैं, फिर भी हमें पाप के विरुद्ध दृढ़ता से प्रचार करना चाहिए। यीशु ने विशिष्ट पापों जैसे क्रोध, आँखों से यौन लालसा, धन से प्रेम, चिंता, भय, बुरे विचार, झूठ बोलना, मनुष्य के सम्मान की खोज करना, अपने शत्रुओं से घृणा करना आदि के विरुद्ध दृढ़ता से बात की। (मत्ती 5, 6 और 7 में)। हमें इंटरनेट पर अश्लील साहित्य देखने जैसे आधुनिक पापों के खिलाफ भी बोलना चाहिए - लेकिन लोगों को दोषित की किए बिना। यीशु जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत को बचाने के लिये आया (यूहन्ना 3:17)। परमेश्वर ही सभी मनुष्यों का न्यायाधीश और दण्ड देने वाला है (याकूब 4:12)।