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पौलुस ने कहा कि वह अपने लाभ की नहीं बल्कि बहुत से लोगों के लाभ की चिंता करता है कि वे उद्धार पाएं, और फिर उसने यह कहा कि वे उसका वैसे ही अनुसरण करें जैसे वह मसीह का अनुसरण करता था (1 कुरिन्थियों 10:33 और 11:1 को एक-साथ पढ़ें।

यह हो सकता है कि हम कुछ ख़ास मामलों में यीशु के पीछे चलें जैसे कामुक लालसा, क्रोध, कड़वाहट, धन के प्रेम आदि पर जय पाना- लेकिन फिर भी शरीर में पाप की जड़ को न छू पाएं। लूसीफर और आदम ने पाप किया; उन्होंने व्यभिचार या हत्या, या पीठ-पीछे बुराई, या अपनी आँखों द्वारा कामुक लालसा करने द्वारा पाप नहीं किया था। उन दोनों ने ही अपने लाभ और स्वार्थ की खोज करने द्वारा पाप किया था। यह सारे पाप की जड़ होती है - अपने स्वार्थ की खोज में रहना।

जब कुल्हाड़ा पेड़ की इस बुरी जड़ पर रखा जाता है, सिर्फ तभी हमारे जीवन की मूल दिशा बदलती है। वर्ना यह हो सकता है कि हम बहुत से क्षेत्रों में जय पा लें लेकिन फिर भी अपने ही लाभ और सम्मान की खोज में लगे हों। यही वजह है कि पाप पर जय पाने का प्रचार करने वाले अनेक प्रचारक भी अंततः फरीसी बन कर रह जाते हैं।

लेकिन जो लोग अपने स्वार्थ की खोज में रहने की बात को जड़ से ख़त्म करना चाहते हैं, वे भी पौलुस की तरह यह पाएंगे कि वे "बहुतों के लाभ की चिंता करने लगेंगे कि उद्धार पाएं" (1 कुरिन्थियों 10:33)। पिछले पद (1 कुरिन्थियों 10:32) में पौलुस लोगों की तीन श्रेणियों के बारे में बात करता है, "यहूदी, गैर-यहूदी और कलीसिया" - अर्थात्, वे जो पुरानी वाचा के अधीन हैं, वे जो कोई वाचा के अधीन नहीं हैं, और वे जो नई वाचा के अधीन हैं। उसकी अभिलाषा थी कि वे सभी उद्धार पा लें। आज हमारे आसपास भी इन्हीं तीन श्रेणियों के लोग हैं - ऐसे विश्वासी जो पाप पर जयवंत नहीं होते (पुरानी वाचा), अविश्वासी (कोई वाचा नहीं), और यीशु के शिष्य जो जयवंत जीवन जीते हैं (नई वाचा)। इन सभी श्रेणियों के लोगों के प्रति हमारा मनोभाव यह होना चाहिए: “मैं अपना नहीं इनका लाभ चाहता हूँ, कि वे उस सारे पाप से उद्धार पा सकें जो उनके शरीर में बसता है।" जब यीशु स्वर्ग से आया था, तब उसका भी यही मनोभाव था।

जब विश्वासियों का यह मनोभाव होता है: "मैं अपने नहीं बल्कि बहुतों के लाभ की चिंता करता हूँ कि वे उद्धार पाएं" - सिर्फ तभी वे मसीह की देह के रूप में कलीसिया का निर्माण कर सकते हैं। वर्ना सभाओं में गहरे विषयों पर संदेश बाँटना भी सिर्फ उनके अपने सम्मान के लिए ही होगा।

यीशु ने कभी अपने स्वार्थ की खोज नहीं की थी। उसने हमेशा अपने पिता की महिमा चाही थी। सिर्फ यही सच्ची आत्मिकता है - इससे कम और कुछ भी नहीं। एक व्यक्ति जिस अंतिम उद्देश्य के लिए जी रहा है, वह यह निर्धारित करता है कि वह एक ईश्वरीय व्यक्ति है या पापी - कामुक लालसा, क्रोध आदि पर कभी यहाँ या कभी वहाँ जय पा लेना काफी नहीं होता - हालांकि ये महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि ये साबित करती हैं कि एक व्यक्ति स्वयं अपने भोग-विलास की खोज में नहीं है। जैसे कि एक दूसरे संदर्भ में यीशु ने कहा था, “ये काम तुम्हें करना चाहिए, लेकिन दूसरा भी किए बिना नहीं रहने देना चाहिए" (मत्ती 23:23)।