WFTW Body: 

प्रतिदिन परमेश्वर की आवाज़ सुनने के लिए समय निकाले। एक वाक्यांश जो बाइबल के पहले ही अध्याय में बार-बार आया है वह यह है: "फिर परमेश्वर ने कहा"।

परमेश्वर ने जब बेडौल पृथ्वी की पुनः रचना की, तब उन छः दिनों के हरेक दिन में उसने कुछ कहाँ और हर बार जब परमेश्वर बोला, तो वह ज़्यादा बेहतर जगह बनती गई।

इसलिए बाइबल के पहले ही पृष्ठ पर हम एक बहुत ही महत्वपूर्ण सत्य जान पाते हैं - कि हमें वह सुनना चाहिए जो परमेश्वर हरेक दिन कहना चाहता है। और अगर हम हरेक दिन हमें बताई गई बात के अधीन होंगे, तो हम बेहतर और ज़्यादा उपयोगी मसीही बनते जाएंगे।

परमेश्वर जो कहना चाहता है उसे सुनने और सिर्फ बाइबल पढ़ने में बहुत फर्क है। याद रखें, कि यीशु को सूली पर चढ़ाने वाले वही लोग थे जो प्रतिदिन पवित्र शास्त्र पढ़ते थे। वे पवित्र शास्त्र तो पढ़ते थे लेकिन उन्होंने कभी परमेश्वर को उनके हृदय से बात करते नहीं सुना था (देखें, प्रेरितों. 13:27)। यही ख़तरा हमारे भी सामने रहता है। और फिर, हम भी वैसे ही अंधे हो सकते हैं जैसे वे थे। उत्पत्ति अध्याय 1 हमें यह भी सिखाता है कि परमेश्वर हमसे प्रतिदिन बात करना चाहता है।

लेकिन ज़्यादातर मसीही परमेश्वर की बात नहीं सुनते। वे सिर्फ मनुष्यों की लिखी बातें ही पढ़ते हैं!

उत्पत्ति 1 में, हम पढ़ते हैं कि जब भी परमेश्वर बोला, अलौकिक बातें हुई। अगर हम भी उन्हीं बातों का प्रचार करें जो परमेश्वर ने पहले हमारे हृदयों में बोला है, तो हमारी सेवकाइयों में भी ऐसा ही हो सकता है।

पौलुस ने तीमुथियुस से कहा कि अगर वह खुद को और दूसरों को बचाना चाहता है तो अपनी शिक्षा से पहले अपने जीवन पर ध्यान दे (1 तीमु. 4:16)। अपने आपको धोखा देने से बचने का सिर्फ एक ही तरीका है कि हम वह सुनें जो परमेश्वर हमसे कहना चाहता है।

यीशु ने एक बार मार्था को मरियम जैसा न होने के लिए झिड़का था क्योंकि वह मरियम की तरह बैठ कर उसे बोलते हुए नहीं सुनती थी, बल्कि काम में बहुत व्यस्त रहती थी। हमारे प्रभु ने फिर यह कहा था कि मरियम जो कर रही थी, जीवन में सिर्फ वही एक बात ज़रूरी थी (लूका 10:42)। हम सब में वही मनोभाव होना चाहिए जो शमुएल में था, जिसने कहा, "बोल, प्रभु, तेरा दास सुनता है।"

हम बाइबल के पहले ही पृष्ठ पर क्या देखते हैं? जब भी परमेश्वर बोला, तो फौरन कुछ हासिल हुआ: ज्योति उत्पन्न हुई, जल में से पृथ्वी प्रकट हुई, वृक्ष, मछलियाँ, पशु आदि रचे गए।

यशायाह 55:10,11 हमें बताता है कि जो शब्द परमेश्वर के मुख से निकल कर जाता है, वह कभी परमेश्वर के उद्देश्य को प्राप्त किए बिना वापिस नहीं लौटता है, और जिस काम के लिए उसे भेजा गया है वह उसे सफलतापूर्वक पूरा करता है।

इन पदों में उन दो शब्दों पर ध्यान दें जिन्हें संसार के सभी लोगों में बहुत मूल्यवान माना जाता है-"प्राप्त करना" और "सफल होना”।

हम सभी अपने जीवनों में कुछ हासिल करना चाहते हैं और हम सभी सफल होना चाहते हैं। लेकिन जीवन छोटा होता है और हमारे पास सफल होने और प्राप्त करने के सारे तरीके आज़माने का वक्त नहीं है-ख़ास तौर पर आत्मिक मामलों में। हमें प्रभु का काम करने के लिए कोई ऐसा तरीका नहीं आज़माना चाहिए कि 20 साल गुज़रने के बाद हमें यह पता चले कि वह तो परमेश्वर का तरीका नहीं था, और हम तो गलत रास्ते पर निकल गए थे ! अगर हम उस शब्द को सुनें जो परमेश्वर बोलता है, तो हम इस तरह समय नष्ट करने से बच सकते हैं। वह सदैव सफलता और सिद्धि लाएगा।