द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   कलीसिया परमेश्वर को जानना
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नई वाचा की सेवकाइ जीवन से प्रवाहित होनी चाहिए न कि बुद्धि से।

पुरानी वाचा में परमेश्वर ने ऐसे लोगों को भी इस्तेमाल किया जिनके जीवन अनैतिक थे। शिमशौन पाप में रहते हुए भी इस्राएल का छुटकारा करा सका। उसके व्यभिचार करने पर भी परमेश्वर के आत्मा ने उसे नहीं त्यागा था। परमेश्वर का अभिषेक उस पर से तभी हटा जब उसने अपने बाल कटाए और परमेश्वर के साथ अपनी वाचा तोड़ी। दाऊद की अनेक पत्नियाँ थीं। फिर भी उस पर परमेश्वर का अभिषेक बना रहा और उसने पवित्र-शास्त्र भी लिखा।

लेकिन नई वाचा की सेवकाई पूरी तरह से भिन्न् है। दूसरा कुरिन्थयों का अध्याय तीन पुरानी वाचा की सेवकाई की तुलना नई वाचा की सेवकाई से करता है। इनमें बुनियादी फर्क यह है: पुरानी वाचा में याजक व्यवस्था का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने के बाद लोगों को वह सिखाते थे जो परमेश्वर ने उसके वचन में कहा था। लेकिन नई वाचा में हम यीशु के पीछे चलते हैं जिसने परमेश्वर के वचन को अपने भीतरी जीवन में से पिता के साथ-साथ चलते हुए बोला। हमारे जीवन में से प्रचार करने और हमारे ज्ञान में से प्रचार करने में बहुत फर्क है।

हरेक प्रचारक जो सिर्फ जानकारी ही देता है पुरानी वाचा का प्रचारक है। वह जो भी जानकारी देता है, वह सही हो सकती है। लेकिन अगर वह जीवन नहीं दे रहा है, तो वह नई वाचा का सेवक नही है। पुरानी वाचा अक्षर की वाचा है, जबकि नई वाचा जीवन की वाचा है। अक्षर मारता है लेकिन आत्मा जिलाता है।

पुरानी वाचा में परमेश्वर ने इस्राएल को नियम दिए जिनका उन्हें पालन करना था। लेकिन नई वाचा में, परमेश्वर ने यीशु के व्यक्तिपन में हमें एक उदाहरण दिया है। उसका जीवन मनुष्यों की ज्योति है। आज यह ज्योति कोई धर्म-सिद्धान्त या शिक्षा नहीं है, बल्कि वह यीशु का अपना जीवन है जो हममें से प्रकट होता है। इसके अलावा जो कुछ भी है, वह अंधकार है - फिर चाहे वह सुसमाचार-प्रचार का कोई धर्म-सिद्धान्त ही क्यों न हो।

पुरानी वाचा में परमेश्वर की लिखित व्यवस्था ज्योति थी, जैसा हम भजन 119:105 में पाते हैं। लेकिन फिर वचन देहधारी हुआ और यीशु स्वयं जगत की ज्योति बन गया (यूहन्नां 8:12)। उसका जीवन मनुष्यों की ज्योति था (यूहन्ना 1:4)। लेकिन उसने अपने शिष्यों से कहा कि वह सिर्फ तब तक जगत की ज्योति हो सकता है जब तक वह पृथ्वी पर है (यूहन्ना 9:5)। अब जबकि वह स्वर्ग चला गया है, वह हमें जगत की ज्योति होने के लिए छोड़ गया है (मत्ती 5:14)। इसलिए उस ज्योति को प्रकट करने की हमारी बड़ी जिम्मेदारी है - हमारे जीवनों के द्वारा।

पुरानी वाचा में मिलाप वाला तम्बू कलीसिया का एक चित्र प्रस्तुत करता है। उस तम्बू में, जैसा आप जानते हैं, तीन भाग थे- एक बाहरी आंगन, एक पवित्र स्थान, और एक महापवित्र स्थान (जो परमेश्वर के रहने का स्थान था)। बाहरी आंगन सिर्फ ऐसे विश्वासियों का प्रतीक है जिनके पाप क्षमा हो गए हैं। वे स्थानीय कलीसिया में अपने ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते। वे सभाओं में आते हैं, संदेश सुनते हैं, दान देते हैं, प्रभु-भोज लेते हैं और अपने घर चले जाते हैं। पवित्र स्थान के लोग वे हैं जो कलीसिया में किसी-न-किसी रूप में कुछ सेवा करना चाहते हैं- उन लेवीयों की तरह जो दीपदान जलाते थे और वेदी पर धूप रखते थे। लेकिन महापवित्र स्थान में प्रवेश करने वाले वे हैं जो नई वाचा में प्रवेश करते हैं, परमेश्वर के साथ संगति चाहते हैं, और दूसरे शिष्यों के साथ एक देह में जुड़े रहते हैं। वे अपने जीवन से सेवा करते हैं और वास्तविक और क्रियाशील चर्च का गठन करते हैं, जो शैतान से लड़ते हैं और मसीह के शरीर को शुद्ध रखते हैं। हालाँकि, कई चर्चों में ऐसा कोई केंद्रीय ध्यान नहीं है।

प्रत्येक अच्छी या बुरी कलीसिया में जो बाहरी आंगन में होते हैं, वे हमेशा एक जैसे होंगे- अर्ध हृदय के, सांसारिक, अपने स्वार्थ की खोज में रहने वाले, धन के प्रेमी, और सुख और भोग-विलास को चाहने वाले। लेकिन एक अच्छी कलीसिया में हमेशा ही अगुवों का एक ऐसा केन्द्रीय समूह होता है। यह समूह ही यह निश्चित करता है कि एक मण्डली को किस दिशा में जाना है।

ऐसा केन्द्रीय मर्म-स्थान अकसर दो लोगों से शुरू होता है जो एक-दूसरे के साथ एक हो गए हैं। परमेश्वर उनके साथ होता है और वे आकार और एकता में बढ़ना शुरू हो जाते हैं। एक मानवीय देह की रचना भी माता के गर्भ में दो भिन्न् इकाईयों के एक हो जाने से शुरू होती है। जब वह भ्रूण बढ़ना शुरू होता है, तो सभी कोषाणु एक साथ जुड़े रहते हैं। लेकिन अगर वे कोषाणु एक-दूसरे से अलग होने लगेंगे तो उस बच्चे का अंत हो जाएगा!

मसीह की देह की अभिव्यक्ति के रूप में एक स्थानीय कलीसिया का बढ़ना भी ऐसा ही होता है। अगर मर्म-स्थान बिखर जाएगा, तो बाहरी ढांचे के एक संस्था के रूप में बने रहते हुए भी, असली कलीसिया टूट जाएगी!

(अगले सप्ताह जारी रहेगा)