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(पिछले सप्ताह से जारी)

इब्रानियों का पहला ही पद यह कहता है कि प्राचीनकाल में परमेश्वर ने नबियों के द्वारा बातें कीं, लेकिन अब उसने अपने पुत्र के द्वारा हमसे बातें की हैं। पुरानी वाचा ज़्यादातर परमेश्वर की तरफ से आज्ञाओं का दिया जाना था जिसमें यही था कि 'तुम्हें यह करना है,' या 'तुम्हें यह नहीं करना है। लेकिन नई वाचा परमेश्वर के पुत्र द्वारा जीवन का दिया जाना है।

यही वजह है कि पिता ने यीशु को एक पुत्र के रूप में पृथ्वी पर भेजा। यीशु को एक पूरे वयस्क पुरुष के रूप में भेजने में भी परमेश्वर को कोई कठिनाई नहीं होती। लेकिन वह एक बच्चे के रूप में इसलिए आया कि उसे बचपन से ही हमारे जैसे सारे अनुभव हों और वह हमारी ही तरह सब बातों में परखा जाए।

लेकिन ज़्यादातर मसीही यीशु के बारे में उसकी साढ़े तीन साल की सेवकाई और उसकी सूली पर हुई मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं। मैं सोचता हूँ कि ऐसा कहना सही होगा कि 99 प्रतिशत विश्वासी यीशु द्वारा नासरत में बिताए गए उसके जीवन के 30 सालों के बारे में कभी नहीं सोचते। वे उसके जन्म के बारे में सोचते हैं। इसका उत्सव प्रतिवर्ष मनाया जाता है। वे उसकी मृत्यु और मर-के-जी-उठने के बारे में सोचते हैं। और वे उसके द्वारा किए गए सारे चिन्ह व चमत्कारों के बारे में सोचते हैं। और बस इससे आगे नहीं।

कोई भी उसके जीवन के अधिकांश भाग के बारे में नहीं सोचता । उसकी सेवकाई उसके जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत हिस्सा थी - उसके साढ़े तैंतीस साल में से सिर्फ साढ़े तीन साल। उसका जीवन और मृत्यु तो एक-दिवसीय घटनाएं थीं। उसके जीवन का मुख्य भाग उसके नासरत में बिताए तीस साल थे। उसकी पूरी सेवकाई उन तीस सालों पर आधारित थी। जिन संदेशों का उसने अपनी सेवकाई के दौरान प्रचार किया, उन्हें तैयार करने में उसे तीस साल लगे थे। उसने 'पहाड़ी उपदेश' का प्रचार ऐसे नहीं किया था जिस तरह आज के प्रचारक अपने संदेशों का प्रचार करते हैं-अपने पठन-कक्ष में बैठकर पुस्तकों और शब्द-कोशों की मदद से टीका-टिप्पणियाँ लिखते हुए, तीन स्पष्ट मुद्दे तैयार कर लेना जो तीनों एक ही अक्षर से शुरू होते हों! नहीं। वह संदेश उसके जीवन में से आया था। इसलिए वह इतना सामर्थ्य से भरा था, और इसलिए लोग उसके उपदेश से चकित हो गए थे (मत्ती 7:28, 29)।

पुरानी वाचा में हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर यिर्मयाह से सिर्फ कुछ ख़ास दिनों में ही बात करता था। जो कुछ परमेश्वर उससे कहता था, वह उसे अपने सेवक बारूक को लिखवाता था, जो उसे हू-ब-हू वैसे ही लिख देता था। परमेश्वर यहेज़केल से भी कुछ ख़ास दिनों में बात करता था और उसे वह बताता था जो उसे यहूदा के लोगों से कहना होता था। और यहेज़केल जाकर लोगों को हू-ब-हू वही बता देता था। वह अच्छा था। अगर हम आज ऐसा प्रचार भी कर सकें तो वह एक ज़बरदस्त प्रचार होगा!

लेकिन नई वाचा की सेवकाई इससे बेहतर है! परमेश्वर यीशु से सिर्फ कुछ ख़ास दिनों में ही बात नहीं करता था जैसा कि पुरानी वाचा के नबियों के साथ होता था। परमेश्वर यीशु से प्रतिदिन बात करता था और यीशु लोगों से प्रतिदिन बात करता था। उसकी सेवकाई उसके जीवन में से आती थी। 'जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी' का यही अर्थ है (यूहन्ना 7:38)।

पुरानी वाचा का सेवक सिर्फ एक संदेशवाहक था। एक संदेश पहुँचाने के लिए आपके पास सिर्फ एक अच्छी स्मरण-शक्ति होनी चाहिए। लेकिन नई वाचा में, परमेश्वर हमें दूसरों को देने के लिए एक संदेश नहीं देता बल्कि उन्हें देने के लिए अपना जीवन देता है! तब आपकी जिस बात की ज़रूरत है वह अच्छी स्मरण-शक्ति नहीं, बल्कि अच्छे जीवन की ज़रूरत है-एक ईश्वरीय जीवन!

मैं इसके बीच के अंतर का एक उदाहरण देता हूँ: अगर आप नल में से थोड़ा पानी भरें (परमेश्वर का संदेश), और उसे उण्डेल दें, तो वह पुरानी वाचा की सेवकाई होगी। आप दोबारा जाकर और पानी भर सकते हैं (परमेश्वर का एक और संदेश), और जाकर उसे फिर उण्डेल साकते है।

लेकिन नई वाचा में, हमारे अन्दर जीवन के जल का स्रोत् दिया जाता है (स्वयं यीशु मसीह का जीवन)। और वह हममें से निरंतर बहता रहता है। इसलिए हमें बार-बार एक संदेश पाने के लिए परमेश्वर के पास जाने की जरूरत नहीं होती। वह हमें संदेश बना देता है। हमारा जीवन ही वह संदेश है और हम उसमें से बोलते हैं।

बहुत से लोगों की उण्डेलने वाली सेवकाई होती है। कुछ लोगों के पास उण्डेल देने के बाद देने के लिए कुछ नहीं बचता, कुछ के पास कुछ बचता है। लेकिन दोनों ही उण्डेलने की सेवकाई कर रहे हैं। दोनों ही सूख जाते हैं।

लेकिन यीशु ने सामरी स्त्री से कहा कि वह उसके अन्दर अनन्त जीवन का स्रोत् दे देगा जो उसके अन्दर से निरंतर बहता रहेगा (अनन्त जीवन का अर्थ स्वयं परमेश्वर का जीवन है।)

यही वह जीवन है जो प्रभु चाहता है कि हममें से भी प्रवाहित हो-सिर्फ एक संदेश नहीं। यह नई वाचा की सेवकाई है।