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2 कुरिन्थियों 11:23-33 में, पौलुस उन विभिन्न् पीड़ाओं और परीक्षाओं के बारे में बात करता है जो उसने प्रभु की सेवा करते हुए सही थीं - कारावास, कोड़ों और बेतों की मार, रात-रात भर जागना, भूखा और प्यासा रहना, ख़राब मौसमों के ख़तरे, डाकुओं के ख़तरे, आदि। ऐसे समय हुए जब उसके पास गर्म कपड़े नहीं थे और खाना नहीं था; और उसके पास कपड़े और खाना ख़रीदने के लिए पैसा भी नहीं था। परमेश्वर उसे इन सब बातों में से लेकर गुज़रा कि वह पीड़ा सहने वाले सभी मसीहियों के लिए एक प्रकार का अग्रदूत बने। इनमें से हरेक परीक्षा में पौलुस ने अपने आपको दीन किया।

वह कहता है, "मैं एक बार दमिश्क में पकड़ा जाने वाला था, तब मैं विश्वासियों द्वारा एक खिड़की में से एक टोकरी में बैठाकर शहरपनाह से नीचे उतारा गया" (2 कुरिन्थियों 11:32,33)। अगर आप एक प्रेरित होते, और आपको किसी ऐसे अपमानजनक हालात में से गुज़रना पड़ता, तो आप शायद यही चाहते कि किसी को इस बात का पता न चले। लेकिन पौलुस यह नहीं चाहता था कुरिन्थियों के मसीही उसके बारे में ऐसी कल्पना करें कि वह कोई महान् व्यक्ति था कि जिसे बचाने के लिए परमेश्वर कुछ स्वर्गदूत भेज देगा। वह एक सामान्य व्यक्ति था और वह यह चाहता था कि लोग उसे एक सामान्य व्यक्ति के रूप में ही जानें। उसने कहा, “मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे बारे में बढ़-चढ़ कर सोचे" (2 कुरि. 12:6 - लिविंग) । पौलुस आज के उन सेवकों से कितना अलग था जो दूसरों के सामने अपनी ऐसी छवि बनाने की कोशिश करते हैं जो उनकी वास्तविकता से बढ़-चढ़ कर होती है।

2 कुरिन्थियों 12:1 में, पौलुस उस समय की बात करता है जब वह प्रभु द्वारा तीसरे स्वर्ग तक पहुँचाया गया। उसने यह बात 14 साल तक किसी को नहीं बताई थी। वह कैसा ज़बरदस्त व्यक्ति था! वह इस अनुभव के बारे में 14 साल तक ख़ामोश रहा - और इसके बारे में बताते समय भी, उसने इसका विस्तार से कोई विवरण नहीं दिया। बहुत से विश्वासियों ने तो कलीसिया की अगली सभा में ही उसके बारे में बात की होती और उसका विवरण पूरे विस्तार से दिया होता! इस वजह से ही मैं विश्वास करता हूँ कि पौलुस का अनुभव असली था। स्वर्ग के जिन दर्शनों के बारे में आजकल कुछ विश्वासी बहुत कुछ बताते रहते हैं, वे उनकी उपजाऊ कल्पनाओं की बातें हैं - उनका लक्ष्य सिर्फ मनुष्यों की प्रशंसा पाना है! मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि जो वास्तविक दर्शन देखते हैं, वे यह पाएंगे (जैसा पौलुस ने कहा), कि वे “ऐसी विस्मयकारी बातें हैं जिनके बारे में एक मनुष्य विस्तार से नहीं बता सकता, न ही उनके बारे में बात कर सकता है" (2 कुरिन्थियों 12:4)।

फिर पौलुस ने परमेश्वर की ओर से आई उस भारी परीक्षा के बारे में बताया जिसे प्रभु ने आग्रहपूर्ण प्रार्थना के बाद भी दूर नहीं किया। पौलुस ने उसे “उसकी देह में चुभाया गया एक काँटा" और "शैतान का एक दूत" कहा फिर भी वह परमेश्वर द्वारा दिया गया था ( 2 कुरिन्थियों 12:7)। जो दान परमेश्वर ने पौलुस को दिया वह एक काँटा था! परमेश्वर ने वह पौलुस को इसलिए दिया क्योंकि परमेश्वर ने यह देखा कि पौलुस घमण्डी हो जाने के ख़तरे में पड़ सकता है। परमेश्वर सभी घमण्डी लोगों का विरोध करता है, लेकिन वह पौलुस का विरोध करने वाला नहीं होना चाहता था। वह उसे अपनी कृपा देना चाहता था। लेकिन पौलुस को वह सिर्फ तभी कृपा दे सकता था जब वह नम्र व दीन बना रहता (1 पत. 5:5)। इसलिए परमेश्वर ने शैतान के एक दूत को यह अनुमति दी कि वह पौलुस को सताए, और इस सताव द्वारा उसे लगातार परमेश्वर पर निर्भर और नम्र बनाए रखे। इस तरह, हम देख सकते हैं कि परमेश्वर एक भले उद्देश्य को पूरा करने के लिए, कभी-कभी शैतान के एक दूत को भी हमें सताते रहने की अनुमति दे सकता है। बीमारी, उदाहरण के तौर पर, शैतान का एक दूत है। हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि यीशु ने कहा, “तुम बुरे होकर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने माँगने वालों को (सिर्फ) अच्छी वस्तुएं और भी अधिक क्यों न देगा?" (मत्ती 7:11)। परमेश्वर की तुलना में, जो सिद्ध है, हम सब दुष्ट पिता हैं। और हम में से कोई अपने बच्चे को बीमारी नहीं देगा। फिर प्रेम करने वाला हमारा स्वर्गीय पिता अपने किसी भी बच्चे को कोई बीमारी कैसे दे सकता है? संसार में ज़्यादातर बीमारियाँ इसलिए हैं क्योंकि पृथ्वी श्रापित है (उत्पत्ति 3:17)। कुछ बीमारियाँ शैतान की तरफ से आती हैं (अय. 2:7)।

हालांकि हमारे लिए परमेश्वर की सिद्ध इच्छा यह है कि हम स्वस्थ रहें, फिर भी एक उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह कभी-कभी हमें बीमार पड़ने दे सकता है। जब पौलुस ने काँटे से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना की तो परमेश्वर ने उससे तो उसे छुटकारा नहीं दिया, लेकिन काँटे के रहते हुए भी उसे जयवंत होने के लिए कृपा दी। हम भी उसी कृपा से जयवंत हो सकते हैं। 2 कुरिन्थियों 13:4-5 में, हम पढ़ते हैं, “यीशु निर्बलता में सूली पर चढ़ाया गया, फिर भी परमेश्वर की सामर्थ्य से जीवित है। उसमें हम भी निर्बल हैं, फिर भी हम उसमें परमेश्वर की सामर्थ्य से जीएंगे।'

एक सच्चा शिष्य वही है जो अपने आप में तो कमज़ोर है, लेकिन वह परमेश्वर की सामर्थ्य की वजह से जीता है। पौलुस ने इस विचार के साथ इस पत्री को पूरा किया।