द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   कलीसिया नेता
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अपने काम की सफलता का मूल्यांकन कभी अपनी लोकप्रियता द्वारा न करें। यीशु ने उन सभी लोगों को धिक्कारा है जो लोगों में 'लोकप्रिय' होते हैं, क्योंकि यह एक झूठा नबी होने का चिन्ह हो सकता है (लूका 6:26)। इसलिए अगर आप एक बहुत लोकप्रिय प्रचारक हैं, तो आप एक झूठे नबी हो सकते हैं! दूसरी ओर, यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि जब लोग तुम्हारी निन्दा करें तो तुम आनन्दित होना, क्योंकि यह एक सच्चे नबी की पहचान है (लूका 6:22, 23)।

जो यीशु ने यहाँ कहा है, क्या आपका इस पर विश्वास है?

याद रखें कि इस्राएल के इतिहास में, और कलीसिया के इतिहास में भी, हरेक सच्चा नबी एक ऐसा विवादास्पद व्यक्ति रहा कि उसके समय के धार्मिक अगुवे उसके पीछे लगे रहते थे, उससे घृणा करते थे, और उस पर झूठे आरोप लगाते रहते थे।

इस नियम का एक भी अपवाद नहीं है-चाहे वे पुरानी वाचा के समयकाल के एलिय्याह या यिर्मयाह हों, पहली शताब्दी के यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला या पौलुस हो, या आधुनिक समय के जॉन वैसली या वॉचमैन नी हों।

इसलिए हमें अपने श्रम की अनन्त सफलता को कभी इस बात से नहीं नापना चाहिए कि हम कितने लोकप्रिय हैं!

हमें अपने काम की सफलता को आंकड़ों द्वारा भी नहीं नापना चाहिए - जैसे हमारी सभाओं में कितने लोगों ने अपने हाथ ऊँचे किए या हमने कितने लोगों को प्रचार किया आदि।

अगर हम आंकड़ों के अनुसार जाँचते हैं, तो हमें यह कहना पड़ेगा कि यीशु की सेवकाई पूरी तरह से निष्फल रही थी, क्योंकि उसके अंत में अपने पिता के सामने प्रस्तुत करने के लिए उसके पास सिर्फ 11 लोग ही बचे थे (यूहन्ना 17)। लेकिन उसकी सेवकाई इस बात में देखी गई कि वे 11 शिष्य किस तरह के लोग थे! परमेश्वर के लिए वे आज के ऐसे 11 लाख गुनगुने, धन-लोलुप, समझौता कर लेने वाले, सांसारिक 'विश्वासियों' से कहीं बढ़ कर थे, और वे परमेश्वर के लिए बहुत कुछ हासिल कर सकते थे।

मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि अगर मैं, अपने संपूर्ण जीवन में, उन प्रेरितों की समान 11 लोग तैयार कर सकूँ, तो मेरी सेवकाई एक तेजस्वी रूप में सफल हो जाएगी। लेकिन ऐसे दो-तीन लोग तैयार करना भी आसान नहीं है। संसार के साथ समझौता किए हुए ऐसे लोगों की बड़ी भीड़ इकट्ठी करनी ज़्यादा आसान है, जो 'यीशु में विश्वास' तो करते हैं लेकिन अपने पूरे हृदयों से उससे प्रेम नहीं करते।

पिछली 20 शताब्दियों में परमेश्वर ने कलीसिया में जितने भी आंदोलन किए, दूसरी पीढ़ी के आते ही उनमें गिरावट होने लगी, और फिर वे वैसे जीवंत और अग्निमय आंदोलन नहीं रहे जैसे वे तब थे जब उनके संस्थापकों ने उन्हें शुरु किया था। क्यों?

इसका एक कारण यह था कि अगली पीढ़ी आंकड़ों में फँसती चली गई। उन्होंने सोचा कि उनका संख्या में बढ़ना इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर उन्हें आशिष दे रहा था।

लेकिन हाल के वर्षों में, संसार में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले समूहों में झूठे मसीही धर्म-मत्ती और दूसरे धर्मों के कट्टरपंथी समूह ही हैं। इससे क्या साबित होता है? सिर्फ यही कि संख्या में होने वाली वृद्धि परमेश्वर की आशिष का प्रमाण नहीं है।

परमेश्वर हमें उस सेवकाई पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए बुलाता है जो उसने हमें मसीह की देह में दी है, और इसके साथ ही, उनके साथ मिलकर काम करने के लिए भी जिनकी दूसरी सेवकाइयाँ हैं। हमारी सेवकाई के परिणामों का मूल्यांकन करना असम्भव है क्योंकि हम एक मसीह समूह जो की उसकी देह का हिस्सा हैं।

इसलिए हमें सिर्फ यह सुनिश्चित करना है कि हम उस काम में विश्वासयोग्य रहें जो परमेश्वर ने हमें करने के लिए दिया है।