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परमेश्वर सारी सृष्टि में सबसे बड़ा अधिकारी है। इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन परमेश्वर अपना अधिकार दूसरों को भी देता है। सरकारी शासकों, माता-पिताओं, और कलीसियाई अगुवों का क्रमशः समाज में, घर में और कलीसिया में अधिकार होता है।

जैसा कि कुछ लोग समझते हैं, कलीसिया कोई लोकतंत्र नहीं है जहाँ हरेक सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रति जवाबदेह है। नहीं। मसीह की देह में प्रभु द्वारा ऐसे अधिकारी नियुक्त किए गए हैं हमें जिनके अधीन रहना है और कलीसियाई मामलों में जिनका आज्ञापालन करना है। यह परमेश्वर की इच्छा है जिसके बारे में परमेश्वर के वचन में स्पष्ट सिखाया गया है।

जैसे परमेश्वर का वचन यह सिखाता है कि लोगों को शासकों के, पत्नियों को पति के, बच्चों को माता-पिता के, और दासों को स्वामियों के अधीन रहना है, वैसे ही वह कलीसिया में अगुवों के अधीन होने की आज्ञा देता है।

इसी तरह, परमेश्वर ने स्थानीय कलीसियाओं में अगुवाई करने के लिए उनमें अगुवे नियुक्त किए हैं। जिस कलीसिया में वास्तव में परमेश्वर द्वारा अगुवे नियुक्त किए गए हैं, वे प्रभु के प्रतिनिधि हैं और उनके पास उसके अधिकार का कुछ भाग होता है। प्रभु ने जब अपने शिष्यों को भेजा था, तो उसने उनसे कहा था, "जो तुम्हारी सुनता है वह मेरी सुनता है, और जो तुम्हें अस्वीकार करता है, वह मुझे अस्वीकार करता है" (लूका 10:16)।

परमेश्वर के वचन में ऐसी आज्ञाएं हैं:“अपने अगुवों की आज्ञा मानों और उनके अधीन रहो, क्योंकि वे तुम्हारी जान की यह जानकर रखवाली करते हैं कि उन्हें उसका लेखा देना है। उन्हें यह काम आनन्द के साथ करने दो न कि आहें भरते हुए, क्योंकि इससे तुम्हें कोई लाभ न होगा" (इब्रा. 13:17)।

परमेश्वर हमें सहभागिता-समूहों (कलीसियाओं या मसीही सेवकों) के रूप में मसीह की देह में रखता है। उसमें, हमें उन आत्मिक अगुवों के अधीन रहने के लिए बुलाया जाता है जिन्हें परमेश्वर हम पर नियुक्त करता है, और उनके साथ हमें एक टीम के रूप में काम करना होता है। अगर परमेश्वर ने हमें एक कलीसियाई संगति में या मसीही सेवकों के एक समूह में रखा है, तो हमें उस अगुवाई के अधीन होना पड़ेगा जिन्हें परमेश्वर ने हमारे ऊपर नियुक्त किया है और सामूहिक मामलों में हमें उस अगुवाई में चलना पड़ेगा। हमें सिर्फ यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत होती है कि परमेश्वर ने ही हमें उस समूह में रखा है। एक बार जब यह बात स्पष्ट हो जाती है, तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि फिर परमेश्वर हमसे यह अपेक्षा करता है कि हम अपने अगुवों की आज्ञा का पालन करें। पवित्र-शास्त्र के इस सिद्धान्त को समझ लेने से मसीही काम की अनेक समस्याएं हल हो जाती हैं।

स्वयं परमेश्वर के पुत्र के उदाहरण पर विचार करें। एक किशोर के रूप में, हम पढ़ते हैं कि वह मरियम और युसुफ के अधीन रहा था (लूका 2:51)। यीशु सिद्ध था। यूसुफ और मरियम सिद्ध नहीं थे। फिर भी वह सिद्ध पुरुष उन त्रुटिपूर्ण मनुष्यों के अधीन रहा क्योंकि यह उसके लिए परमेश्वर की इच्छा थी। पिता की इच्छा यीशु के सारे मामलों को पूरी तरह तय कर देती थी। अगर पिता की यह इच्छा थी कि वह मरियम और यूसुफ की अधीनता में रहे, तो वह वही करने के लिए तैयार था - और वह भी तब तक जब तक पिता चाहता था।

इस तरह, हम परमेश्वर के सिद्ध पुत्र के उदाहरण द्वारा भी यह देखते हैं, कि एक-मात्र महत्वपूर्ण सवाल यह है, "क्या यह परमेश्वर की इच्छा है कि मैं इस सहभागिता में रहूँ?" अगर इसका जवाब "हाँ" है, तब यह हमारी ज़िम्मेदारी बन जाती है कि हम परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए अधिकार के अधीन रहें।

अधिकार के विरुद्ध विद्रोह जगत में किया गया पहला पाप था, जब स्वर्गदूतों के मुखिया लूसिफ़र ने अपने ऊपर परमेश्वर के अधिकार के विरुद्ध विद्रोह किया था।

जगत में आज दो आत्माएं काम कर रही हैं- मसीह की आत्मा, जो लोगों को परमेश्वर द्वारा नियुक्त अधिकारी के अधीन होने में उनकी अगुवाई कर रही है, और शैतान की आत्मा, जो लोगों को उस अधिकार के खिलाफ विद्रोह करने में उनकी अगुवाई कर रही है।
आज मानवीय समाज में विद्रोह की आत्मा भरी हुई है- घर में भी और कलीसिया में भी। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि दुनिया तेजी से परमेश्वर से दूर जा रही है, और तेजी से शैतान द्वारा नियंत्रित हो रही है।मसीह की देह के अंगों के रूप में, हमारी बुलाहट यह है कि हम विद्रोह के इस शैतानी सिद्धान्त के ख़िलाफ खड़े हों और अधीनता के मसीह के उदाहरण का अनुसरण करें।

परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए अगुवों के अधिकार के अधीन होने से हमारा कभी कोई नुकसान नहीं होगा। दूसरी तरफ, विद्रोह करने से हमारा बहुत नुक्सान हो जाएगा। परमेश्वर द्वारा नियुक्त ईश्वरीय अगुवों के अधीन होना वह तरीका है जिसके द्वारा परमेश्वर हमें आत्मिक रूप में परिपक्व बनाता है। अगर हम वहाँ अधीन नहीं होंगे जहाँ परमेश्वर ने हमें अधीन होने के लिए बुलाया है, तो हमारी आत्मिक उन्नति नहीं हो पाएगी।

ऐसे अनेक विश्वासी हैं जिन्होंने अपने अनुभव में कभी भी परमेश्वर की सर्वाधिकार की वास्तविकता को नहीं जाना है क्योंकि उन्होंने कभी यह नहीं जाना है कि नम्र व दीन होकर अपने आत्मिक अगुवों के अधीन होने के परिणाम-स्वरूप अपनी स्वयं की योजनाओं में रोका जाना और उनका पूरा न होना क्या होता है। जो व्यक्ति अपने जीवन के कभी किसी दूसरे के अधीन नहीं हुआ है, वह न तो परमेश्वर की सेवा कर सकता है और न ही उसके जीवन में स्वयं एक आत्मिक अगुवा बन सकता है।

जैसा शैतान हमारे कानों में फुसफुसाता रहता है, अधीनता कोई अपमानजनक और दमनकारी बात नहीं होती। इसके विपरीत, यह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा परमेश्वर आत्मिक रूप में हमारी रक्षा करता है। हमारे मसीही जीवन के आरम्भिक सालों में, जब हम परमेश्वर के मार्गों से अनजान होते हैं, तब आत्मिक अगुवों के अधीन रहने से हम स्वयं बहुत से गड्ढों में गिरने से बच सकते हैं, और अपने युवावस्था के उत्साह में दूसरों को भी भटकने वाले स्थानों में पहुँचाए जाने से बचा सकते हैं। अधीनता में बिताए गए वे साल ऐसा समय भी हो सकता है जब परमेश्वर हमें उसके राज्य के सिद्धान्त सिखाने द्वारा हमें आत्मिक तौर पर धनवान बना सकता है कि फिर हमारे पास दूसरों के लिए एक सेवकाई हो।

अधीनता के मार्ग से बच निकलने के द्वारा हम कितना कुछ खो देते हैं!