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मूसा सिनै पर्वत पर से अपने हाथों में पत्थर की दो पट्टियाँ लेकर नीचे उतरा था। एक पर वे पहली चार आज्ञाएं लिखी थीं जो मनुष्य के परमेश्वर के साथ सम्बंध के बारे में थीं। दूसरी पर अन्य छः आज्ञाएं थीं जो के उसके साथी मनुष्यों के साथ सम्बंध के बारे में थीं।
प्रभु यीशु ने कहा कि इन दोनों पट्टियों की आज्ञाओं को दो आज्ञाओं में समाहित किया जा सकता है। पहली, "तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे हृदय और अपने सारे जीव और अपनी सारी बुद्धि से प्रेम कर," और दूसरी यह कि "तू अपने पड़ौसी से अपने समान प्रेम कर" (मत्ती 22:37-39)

जो प्रार्थना यीशु ने सिखाई, उसमें भी उसने इन दोनों आज्ञाओं पर ज़ोर दिया। उसके पहले तीन निवेदन पहली आज्ञा से जुड़े हैं, और अगले तीन निवेदन दूसरी आज्ञा से जुड़े हैं, जिसके विस्तार को यीशु ने उस नई आज्ञा द्वारा और बढ़ा दिया जो उसने अपने शिष्यों को यह कहते हुए दी थी, “जैसा प्रेम मैंने तुमसे किया है, तुम भी एक-दूसरे से वैसा ही प्रेम रखो" (यूहन्ना 13:14)।

यीशु का एक सच्चा शिष्य उसके सचेत और अचेत अस्तित्व में, सिद्धता के साथ परमेश्वर में केन्द्रित होना चाहता है - वह अपनी हरेक अभिलाषा को परमेश्वर के साथ एक सिद्ध तालमेल में ले आना चाहता है, और उसके जीवन के लिए परमेश्वर की जो इच्छा है, उससे बाहर जाकर उसकी कोई अभिलाषा, महत्वकांक्षा और भावना नहीं होती। इसके साथ ही वह अपने भाइयों को भी वैसे ही सिद्ध रूप में प्रेम करना चाहता है जैसा यीशु ने उससे किया है।

लेकिन उसे हमेशा यह अहसास रहता है कि इन दोनों ही दिशाओं में उसका मनोभाव जैसा सिद्ध होना चाहिए वैसा नहीं है। लेकिन वह उस लक्ष्य की तरफ बढ़ता जाता है, और वहाँ तक पहुँचने के लिए वह हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहता है।

अपने भाइयों से प्रेम करने का अर्थ उनके बारे में ख़याल/चिंता रखना है। हम जगत में हरेक व्यक्ति के बारे में ख़याल/चिंता नहीं रख सकते। यह क्षमता सिर्फ परमेश्वर में है। लेकिन हमारी क्षमता के अनुसार, हमारे अन्दर अपने साथी - विश्वासियों के बारे में ख़याल/चिंता होनी चाहिए; और यह क्षमता लगातार बढ़ती रहनी चाहिए।

लेकिन हम इस तरह से अपनी शुरूआत नहीं करते। इसमें पहला क़दम अपने परिवार के सदस्यों से प्रेम करना है, जैसे यीशु ने हमसे किया है। लेकिन हमें वही नहीं रुकना है। आगे बढ़ते हुए, फिर हमें परमेश्वर के परिवार में अपने भाइयों व बहनों से प्रेम करना, वैसा ही प्रेम जैसा यीशु ने हमसे किया है।

सिद्धता एक लक्ष्य है जिसकी तरफ हमें बढ़ना है। लेकिन उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हममें एक दृढ़ संकल्प होना चाहिए। पौलुस इसी दिशा में बढ़ रहा था जब उसने यह कहा, “मैं एक काम करता हूँ, जो बातें पीछे रह गई हैं उन्हें भूलकर आगे की तरफ बढ़ता हुआ, लक्ष्य की ओर दौड़ा जाता हूँ कि वह ईनाम पाऊँ जिसके लिए परमेश्वर ने मुझे मसीह यीशु में मुझे ऊपर बुलाया है" (फिलि. 3:13, 14)। ऊपर आने की परमेश्वर की बुलाहट पूरी तरह से परमेश्वर में केन्द्रित हो जाना, सबसे बढ़कर परमेश्वर से प्रेम करना, अपने साथी - विश्वासियों से वैसा ही प्रेम करना जैसा यीशु ने हमसे किया, और अपने पड़ौसी से अपने समान प्रेम करना है।