द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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1. यह विश्वास करे कि परमेश्वर के पास हमारे हर एक के जीवन के लिए एक सिद्ध योजना है:
“क्योंकि हम उसके बनाए हुए है; और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिए सृजे गए है जिन्हें परमेश्वर ने पहिले से ही हमारे करने के लिए तैयार किया” (इफिसियों 2:10)। बहुत पहले, जब परमेश्वर ने हमें मसीह में चुना, तो उसने यह भी निश्चित किया कि हमें अपने पार्थिव जीवनों के साथ क्या करना है। हमारा काम अब यह है कि हम दिन प्रतिदिन उस योजना की खोज में रहें और उसका अनुसरण करें। हम परमेश्वर से बेहतर योजना कभी नहीं बना सकते। दूसरे लोग क्या कर रहे है हमें इस बात की नकल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अपने हर एक बच्चे के लिए परमेश्वर के पास एक अलग योजना है। उदाहरण के तौर पर, युसुफ के लिए परमेश्वर की योजना यह थी कि वह उसके जीवन के अंतिम 80 वर्ष मिस्र के महल में बड़े आराम से गुजारे। दूसरी तरफ, मूसा के लिए परमेश्वर की योजना यह थी कि वह मिस्र के महल को छोड़े और उसके जीवन के अंतिम 80 वर्ष बड़ी तकलीफ में – जंगल में गुजारे। यदि आराम और सहजता के प्रेम के कारण मूसा ने यूसुफ के उदाहरण का अनुसरण किया होता, तो वह अपने जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा को खो देता। ठीक उसी तरह से, आज परमेश्वर एक भाई के लिए उसका सारा जीवन अमेरिका में आराम से बिताने के लिए चाह सकता है, और दूसरे भाई के लिए उत्तर भारत की गर्मी और धूल में उसके सारे जीवन को बिताने की चाह रख सकता है। अपने जीवन की किसी दूसरे भाई से तुलना करने और उससे ईर्ष्या करने और उसकी आलोचना करने के बजाय हर एक को अपने स्वयं के जीवन के लिए परमेश्वर की योजना के बारे में निश्चिंत होना चाहिए। मैं जानता हूँ कि परमेश्वर ने मुझे भारत में सेवा करने के लिए बुलाया है। लेकिन मैंने कभी यह अपेक्षा नहीं की है कि अन्य लोगों की बुलाहट भी मेरे जैसे ही हो। लेकिन अगर हम अपने लिए सम्मान चाहते है या धन या सुख विलास से प्रेम रखते है या मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहते है तो हम परमेश्वर की इच्छा कभी नहीं जान पाएंगे।

2. परमेश्वर को करीबी से जानना ही सामर्थी होने का रहस्य है:
“लेकिन जो लोग अपने परमेश्वर का ज्ञान रखेंगे, वे हियाव बांधकर बड़े काम करेंगे” (दानिय्येल 11:32)। आज, परमेश्वर नहीं चाहता है कि हम उसे दूसरों के माध्यम से जानें। वह हममे से सबसे छोटी उम्र के विश्वासी को भी उसे व्यक्तिगत रूप में जानने का निमंत्रण देता है (इब्रानियों 8:11)। यीशु ने अनन्त जीवन को परमेश्वर और यीशु मसीह को व्यक्तिगत रूप से जानने के रूप में परिभाषित किया (यूहन्ना 17: 3)। यही पौलूस के जीवन का सबसे बड़ा मनोवेग था और यही हमारे जीवन का भी सबसे बड़ा मनोवेग होना चाहिए (फिलिप्पियों 3:10)। जो परमेश्वर को घनिष्ठता से जानने की अभिलाषा रखता है, उसे हमेशा परमेश्वर को सुननेवाला होना चाहिए। यीशु ने कहा कि मनुष्य स्वयं को आत्मिक रूप में तभी जीवित रख सकता है, जब वह परमेश्वर के मुख से निकले हर एक शब्द को सुनता है (मत्ती 4:4)। उसने यह भी कहा कि उसके चरणों में बैठना और उसकी बात सुनना ही मसीही जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात है (लूका 10: 42)। हमें भी मसीह के समान प्रति दिन भोर के समय से शुरू करते हुए सारा दिन पिता की बात सुनने की आदत विकसित करनी चाहिए (यशायाह 50:4) और फिर रात के पहर में हमारी नींद में भी हमें सुनने की मनोदशा में ही होना चाहिए - कि अगर रात में हम अपनी नींद में से जागे तब भी यह कह सके, “बोल प्रभु, तेरा दास सुनता है” (1 शमूएल 3:10)। परमेश्वर की इच्छा को जानना हमें सारी परिस्थितियों में जयवंत बनाता है – क्योंकि परमेश्वर के पास हर उस समस्या का समाधान है, जिसका हम सामना करते हैं - और यदि हम उसे सुनते हैं, तो वह हमें बताएगा कि वह समाधान क्या है।

3. उन सभी को स्वीकार करें जिन्हें परमेश्वर ने स्वीकार किया है:
“परमेश्वर ने सब अंगो को अपनी इच्छानुसार एक-एक कर देह में रखा है कि देह में कोई फूट न पड़ें परंतु सब अंग अपने समान एक दूसरे की चिंता करे (1 कुरिंथियों 12:18,25)। परमेश्वर ने अलग-अलग समय कालों में और अलग-अलग स्थानो में ऐसे लोगों को खड़ा किया है जिन्होने उसके लिए सच्ची साक्षी को पुनःस्थापित किया है। लेकिन परमेश्वर के उन जनो की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उनके समूहों को विशिष्ट और सांप्रदायिक पंथ बना दिया। लेकिन मसीह की देह किसी भी समूह से बढ़कर है। और हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए। मसीह की दुल्हन आज बहुत से समूहों में पाई जाती है। इसलिए हमें उन सभी लोगों के साथ संगति की तलाश करनी चाहिए जिन्हें परमेश्वर ने स्वीकार किया है, भले ही हम परमेश्वर के वचन की व्याख्या में अंतर के कारण उनमें से कई के साथ मिलकर काम नहीं कर सकते।