द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   कलीसिया
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प्रकाशितवाक्य 2 और 3 अध्याय में, जब हम पाँच दूतों और कलीसियाओं को जिन्हें प्रभु ने धुड्का, तो उनमे हम एक निश्चित गिरावट के चलन को पाते है।

(1) इफिसुस में, हम प्रभु के प्रति पहले प्रेम की कमी को देखते है। जब हम मसीह के प्रति अपनी भक्ति को खो देते है, तो हमने अपने पतन का पहला कदम उठा लिया है। और थोड़े ही समय में, इसके परिणाम स्वरूप हम अपने संगी विश्वासियों के प्रति अपने प्रेम को खो देते है।

(2) पिरगामुन में हम देखते है कि बिलाम की शिक्षा के द्वारा सांसारिकता ने धूर्तता से प्रवेश कर लिया था। नीकुलईयों ने (जिन्हें इफिसुस की कलीसिया से बाहर रखा गया था), इस कलीसिया में अपना अधिकार जमा लिया था। जब मसीह के प्रति भक्ति खत्म हो जाती है तो सांसारिकता कलीसिया में रेंगती हुई घुस आती है और धार्मिक पदक्रम उस पर अधिकार जमा लेता है। एक बार जब धार्मिक पदक्रम कलीसिया की अगुवाई अपने हाथ में ले लेता है, तो बाबुल का निर्माण आसानी से हो जाता है।

(3) थूआतीरा में, कलीसिया पूरी तरह सांसारिक बन चुकी थी और इसके परिणाम स्वरूप धार्मिक वेश्यावृति व्यापक रूप से फैल गई थी। अब एक स्त्री के पास कलीसिया को प्रभावित करने की सामर्थ थी और वह झूठे अनुग्रह का प्रचार कर रही थी। और पवित्र-आत्मा के वरदानों की (खास तौर पर भविष्यद्वाणी की) नकल भी कर रही थी।

(4) सरदीस की कलीसिया में हम पांखड़ को देखते है। इसमे पाप को ढाँपा जाता है और मनुष्य के विचारों को परमेश्वर के विचारों से ज्यादा महत्व दिया जाता है। कलीसिया का दूत आत्मिक तौर पर सोया हुआ है (आत्मिक वास्तविकताओं से पूरी तरह अंजान)। फिर भी, भक्ति का भेष मनुष्यों की आँखों से आत्मिक मृत्यु को ढाँप लेता है जिसे केवल परमेश्वर ही देख सकता है।

(5) लौदीकिया में हालात इस हद तक बदतर हो चुके थे कि देह न सिर्फ मर चुकी थी, बल्कि सड़ने और दुर्गंध मारने लगी थी। गुनगुनापन और आत्मिक घमंड इस मृत्यु का कारण बना था। इन उपरोक्त चार कलीसियाओं में से हरेक में प्रभु ने फिर भी कुछ अच्छाई देखी थी। लेकिन लौदीकिया की कलीसिया में उसे कुछ भी अच्छाई नजर नहीं आई थी।

इन उपरोक्त कलीसियाओं के किसी भी दूत को न तो अपनी न ही अपनी कलीसियाओं की सच्ची आत्मिक दशा ज्ञात थी। वे सबके सब स्वयं के विषय में उच्च विचार रखने के कारण स्वसंतुष्ट हो गए थे। उनके पास यह सुनने के लिए समय नहीं था कि प्रभु व्यक्तिगत रूप में उनसे क्या कहना चाह रहा था क्योंकि वे सब दूसरों को प्रचार करने के लिए संदेश तैयार करने में व्यस्त थे। उनकी दिलचस्पी अपनी जरूरत की तरफ ध्यान देने से ज्यादा दूसरों को प्रचार करने में थी। यह बहुत आसान हो जाता है जैसे ही एक व्यक्ति कलीसिया का दूत बन जाता है तो, यह कल्पना करना कि अब उसे अपने जीवन में सुधार की आवश्यकता नहीं है। बाइबल में एक ऐसा वर्णन है “वृद्ध और मूर्ख राजा है जो अब सम्मति ग्रहण करना नहीं जानता” (सभोपदेशक 4:13)। इन पांचों कलीसियाओं के दूत उस मूर्ख राजा के समान थे। उनका शब्द इतने लंबे समय से कानून बना हुआ था कि वे अब यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि वे किसी बात में गलत हो सकते है! ऐसी थी उनकी भ्रमित अवस्था। उनकी कल्पना के अनुसार वे अपने जीवन से कभी भी परमेश्वर का अभिषेक नहीं खो सकते थे। उनके घमंडी आचरण ने उन्हें आत्मिक रीति से बहरा बना दिया था। राजा शाऊल भी एक ऐसा मूर्ख राजा था जिसकी शुरुआत अच्छी थी लेकिन आगे जाकर वह रास्ते से भटक गया था। जब राजा होने के लिए प्रभु ने पहले उसका अभिषेक किया था तो वह “अपनी नजर में छोटा’ था (1 शमुएल 15:17)। लेकिन वह अपनी नजर में छोटा नहीं बना रहा। और इस तरह उसने परमेश्वर का अभिषेक खो दिया। वह अभिषेक फिर एक युवक दाऊद के ऊपर आकर ठहर गया। शाऊल को इसका एहसास हो गया था लेकिन उसने इसे स्वीकार करना न चाहा। वह हठपूर्वक सिंहासन पर बैठा रहा और दाऊद को मारने का प्रयत्न करता रहा। अंततः परमेश्वर ने शाऊल को मार कर दाऊद को सिंहासन पर बैठा दिया। आज अनेक कलीसियाओं में हम इसी प्रकार की स्थितियो को देखते है। जो एक समय में कभी परमेश्वर के दूत रहे थे, उनके ऊपर से आत्मा का अभिषेक हट चुका है और अब बड़े सामर्थ के साथ उनकी कलीसिया के किसी युवा भाई पर ठहरा हुआ है। लेकिन “वृद्ध और मूर्ख राजा” अब यह दृश्य सहन नहीं कर पा रहे है। तो वे क्या करते है? उनकी ईर्ष्या और अपने राज्य को बनाए रखने की स्वार्थी अभिलाषा उन्हें उकसाती रहती है कि वे किसी न किसी तरीके से उन युवा भाइयों को दबा रखे। शायद एशिया माइनर की पीछे हट चुकी इन पाँच कलीसियाओं में भी कुछ ऐसा ही हो रहा होगा। इसलिए परमेश्वर ने इस पाँच कलीसियाओं को एक अंतिम चेतावनी दी थी।

परमेश्वर किसी से पक्षपात नहीं करता और उसके कोई विशेष पसंदीदा नहीं होते। पौलूस प्रेरित ने भी इस बात का एहसास किया कि यदि वह एक अनुशासित जीवन जीने के लिए सचेत नहीं रहा तो वह भी गिर सकता है और अयोग्य ठहराया जा सकता है (1 कुरिंथियों 9:27)।

पौलूस ने तीमुथियुस से कहा, “अपनी और अपने उपदेश की चौकसी कर, उसमे बना रह, क्योंकि जब तू ऐसा करेगा तो अपने और अपने सुनने वालों के उद्धार का कारण बनेगा” (1 तीमुथियुस 4:16)। सर्व प्रथम तीमुथियुस को अपने जीवन पर ध्यान देना था। तब वह अपने जीवन में उन बातों से जो मसीह के समान नहीं है, उद्धार को अनुभव कर पाएगा और तभी वह दूसरों को भी इस उद्धार तक पहुँचाने में अगुवाई कर पाएगा। प्रभु ने हरेक कलीसिया में अपने दूतों के लिए यही तरीका ठहराया है।

पौलुस ने इफिसुस की कलीसिया के प्राचीनों से भी यही कहा कि वे पहले अपने जीवनो को देखते और फिर अपने झुंड के लोगों के जीवनो की रखवाली करे (प्रेरितों 20:28)। प्रभु के हरेक दूत की यही ज़िम्मेदारी होती है कि वह सर्व प्रथम सारी शुद्धता और पवित्र आत्मा के निरंतर अभिषेक की अधीनता में अपने जीवन को संरक्षित रखे। “तेरे वस्त्र हर समय श्वेत रहें और तेरे सिर पर तेल का अभाव न हो” (सभोपदेशक 9:8)।

प्रभु ने इन दूतों से सीधी तौर पर बाते करना चाहा था। लेकिन उनके पास सुनने वाले कान नहीं थे। अंततः उसे एक प्रेरित के माध्यम से बातें करनी पड़ी। परमेश्वर का धन्यवाद हो कि वहाँ कम से कम एक यूहन्ना मौजूद था जो प्रभु की आवाज को साफ-साफ सुन सकता था।

फिर भी, उनकी निष्फलताओं के बावजूद भी, प्रभु को इस सभी पाँच दूतों के लिए आशा थी- क्योंकि उसने उन्हे अभी भी अपने दाहिने हाथ में थामा हुआ है (प्रकाशितवाक्य 2:1)। यदि वे मन फिराएँ, तो फिर से महिमामय भाई बन सकते है। और उनकी कलीसियाएँ पुनः एक बार फिर प्रभु की महिमा को प्रकाशित करने वाली बन सकती है। लेकिन यदि वे इस अंतिम चेतावनी पर ध्यान देने में निष्फल होते है, तो प्रभु उन्हें निकाल देगा।

मसीही कलीसिया का इतिहास यह दर्शाता है कि कैसे यह प्रक्रिया संसार के प्रत्येक कोने में पिछली बीस शताब्दियों के दौरान बार-बार दोहराई जाती रही है। यही वजह है कि आज हम सब जगहों में बहुत सी बेबीलोनी “कलीसियाओं” को पाते है। एक स्तर में पहुँचने पर स्थिति इतनी बदतर हो जाती है कि उस शहर में एक दीवट भी नहीं बचा रहता। हरेक तथा-कथित कलीसिया बेबीलोनी कलीसिया हो सकती है।

वह क्या बात है जिसे प्रभु एक कलीसिया में देखना चाहता है। एक कलीसिया
1) जो मसीह के प्रति भक्ति और एक-दूसरे के प्रति प्रेम में सरगर्म हो।
2) जो परमेश्वर में एक जीवित विश्वास का प्रचार करती हो।
3) जो परमेश्वर की सारी आज्ञाओं के संपूर्ण आज्ञापालन पर ज़ोर देती हो।
4) जो बिना लजाये यीशु की गवाही देती हो।
5) जो आत्मिक घमंड, पाखंड और सांसारिकता के विरोध में खड़ी रहती हो।
6) जो झूठे प्रेरितों, झूठे शिक्षको और झूठे वरदानों का पर्दाफ़ाश (उजागर) करती हो।
7) जो निरंतर शरीर को क्रूसित करने का प्रचार करती हो।
8) जो सभी विश्वासियों को निरंतर अपने आप का न्याय करने (जाँचने) को प्रोत्साहित करती हो।
9) जो सभी विश्वासियों को यीशु के समान जय पाने के लिए चुनौती प्रदान करती हो।

परमेश्वर हर जगह में अपने नाम के लिए ऐसी ही गवाही की चाहत रखता है।