द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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2 कुरिन्थियों 3:18 पूरे नए नियम में एक ऐसा पद है जो पवित्र आत्मा की सेवकाई की सबसे अच्छी व्याख्या करता है। जब पवित्र-आत्मा हमारे जीवन में प्रभु बन जाता है, तो वह स्वतंत्रता लाता है। जहां प्रभु का आत्मा है, वहाँ स्वतंत्रता है (2 कुरिन्थियों 3:17)। वह मुख्य रूप में हमें पाप की शक्ति से स्वतंत्र करता है, लेकिन वह हमें धन के प्रेम, परमेश्वर के वचन का विरोध करने वाली हमारे पूर्वजों व प्राचीनों की परम्पराओं, लोगों के मतों आदि से भी मुक्त करता है। यह वास्तव में एक महान स्वतंत्रता है। फिर हम मनुष्यों की नहीं परमेश्वर की सेवा करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।

2 कुरिन्थियों 3:18 में हमे बताया गया है कि पवित्र-आत्मा शास्त्रों में हमें यीशु की महिमा दिखाता है (परमेश्वर का वचन दर्पण है - याकूब 7:23-25) । कुछ लोग बाइबल सिर्फ इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि वे उसमें से संदेश पाना चाहते हैं और धर्म-सिद्धान्तों की पुष्टि करना चाहते हैं। लेकिन पवित्र-आत्मा प्राथमिक तौर पर हमें बाइबल में से यीशु की महिमा दिखाना चाहता है। और जैसे-जैसे हम उस महिमा को देखते हैं, पवित्र आत्मा हमें उसकी समानता में बदलता जाता है। और इस समानता में वह समानता भी शामिल है जो मसीह की सेवकाई के साथ है। हम मसीह के समान सेवकाई करने लगेंगे। पवित्र-आत्मा हमें दिखाएगा कि पिता की इच्छा पूरी करने के लिए यीशु ने कैसे बलिदान किए थे - और प्रभु की सेवा करने के लिए वह हमसे भी वह बलिदान कराएगा। अगर हम पवित्र आत्मा को हमें बदलने की अनुमति देंगे, तो हमारा जीवन और हमारी सेवकाई पूरी तरह बदल जाएगी।

अब जब परमेश्वर के वचन में हम यीशु की महिमा देखते हैं, तो पवित्र-आत्मा उस महिमा को हममें एक अंश से दूसरे अंश तक बढ़ाता जाता है कि फिर उसकी महिमा हममें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाए (2 कुरिन्थियों 3:18)। दूसरे शब्दों में, अगर हम पूरी तरह पवित्र-आत्मा को समर्पित होंगे, तो हमारे जीवन का अभिषेक उससे बढ़कर होगा जो कुछ साल पहले था, और उससे बहुत बढ़कर होगा जो 30 साल पहले था। लेकिन अगर आप विश्वासयोग्य नहीं हैं, तो जैसे-जैसे आपकी उम्र बढ़ेगी, वह महिमा कम होती रहेगी। बहुत से उत्साही युवा उनका विवाह होते ही पीछे हटने लगते हैं। ऐसा क्यों होता है? अगर आप परमेश्वर की इच्छा में विवाह करेंगे, तो आपका उत्साह और महिमा आपके अविवाहित होने के समय से कहीं बढ़कर होगा। लेकिन अगर आपके लिए आपकी पत्नी या आपका घर प्रभु से बढ़कर हो जाएगा, तो महिमा घटती जाएगी। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की महिमा देखना छोड़ देता है और पीछे हटने लगता है।

2 कुरिन्थियों 4:1 में, पौलुस अपनी सेवकाई का बयान करना जारी रखता है। "जब हम पर ऐसी दया हुई कि हमें यह सेवा मिली, तो हम साहस नहीं खोते"। साहस खो देने का अर्थ निरुत्साहित हो जाना है। प्रेरित पौलुस भी निरुत्साहित होने की परीक्षा में पड़ा था। इसलिए अगर आप निरुत्साहित होने की परीक्षा में पड़ते हैं, तो आपको यह बात अजीब नहीं लगनी चाहिए। मैं बहुत बार निरुत्साहित होने की परीक्षा में पड़ा हूँ। लेकिन मैंने भी पौलुस की तरह कहा है, "हम इसलिए निरुत्साहित नहीं होते क्योंकि हम अपनी नज़र यीशु पर लगाए रखते हैं, और उस अद्भुत सेवकाई के बारे में विचार करते हैं जो परमेश्वर ने हमें सौंपी है"। इसलिए, हालांकि हम सब निरुत्साहित होने की परीक्षा में पड़ेंगे, फिर भी अगर हम अपनी नजरें प्रभु पर लगाए रखेंगे, तो हममें से किसी को कभी निरुत्साहित होने की जरूरत नहीं होगी।

बहुत से मसीही सेवक कुछ सालों तक परमेश्वर की सेवा करने के बाद हतोत्साहित, उदास और विषादपूर्ण हो जाते हैं, और कुछ तो मानसिक तौर पर टूट भी जाते हैं। यह इसलिए होता है क्योंकि वे अपनी भरपूरी में से परमेश्वर की सेवा करने की कोशिश करते हैं। हमें परमेश्वर पर निर्भर होना चाहिए कि वह उसकी सेवा के लिए उसकी भरपूरी में से हमें दे। अगर हमें परमेश्वर की सेवा करना है तो हमें अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी उस पर भरोसा रखना चाहिए। परमेश्वर की प्रतिज्ञा है: "जो परमेश्वर की बाट जोहते हैं वे नया बल प्राप्त करते जाएंगे। जवान भी थक कर गिर जाएंगे, लेकिन वे उकाबों के समान पंख फैला कर ऊँचाई पर उड़ेंगे" (यशायाह 40:31) । हमारी परिपूर्णता परमेश्वर से आती है। अगर आप आर्थिक संकट में हों, तब भी इस प्रतिज्ञा में भरोसा रखें: “हमारी भरपूरी परमेश्वर से आती है"। हमारी जो भी जरूरत है, परमेश्वर उसे पूरा करने में पूरी तरह सक्षम है।

2 कुरिन्थियों 4:10, 11 ऐसे पद हैं जो ज्यादातर मसीहियों द्वारा गलत समझे जाते हैं। बहुत से विश्वासी एक ऐसा सुसमाचार सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं जो उनके जीवनों में शारीरिक चमत्कार करे। लेकिन अगर आप चाहते हैं कि मसीह का जीवन आपमें प्रकट हो, तो इसका जवाब इन पदों में रखा है। "हमें मसीह की मृत्यु को अपनी देह में लेकर फिरना है"। लेकिन “यीशु का मरना" क्या है? यह हमारी अपनी इच्छा और हमारे खुदी-के-जीवन के लिए उसी तरह मरना है जैसे यीशु पृथ्वी पर उसके साढ़े 33 साल के जीवन में मरा (यूहन्ना 6:36)। इसका अर्थ है जीवन की परिस्थितियों में उसी तरह प्रतिक्रिया करना जैसी यीश ने किया जब वह पृथ्वी पर था। उसने उस समय कैसी प्रतिक्रिया की जब लोगों ने उसे शैतान कहा, यहूदा इस्करियोती ने उसका पैसा चुराया, लोगों ने उस पर थूका, उसे नाजायज़ संतान कहा (मरियम का पुत्र), उसका अपमान किया, उसे लूटा, गालियाँ दीं, प्रचार करने से रोका और आराधनालय से बाहर फेक दिया? वह मानवीय सम्मान, प्रतिष्ठा, कीर्ति, गरिमा और अपनी इच्छा के लिए मर गया। यही तो "यीशु का मरना है"। आपका और मेरा यीशु के कलवरी पर मरने में कोई हिस्सा नहीं है। हम संसार के पापों के लिए नहीं मर सकते। लेकिन उसके जीवन में एक ऐसा मरना था जो उसके पृथ्वी के जीवन में प्रतिदिन होता था। यह वह मरना है जिसमें हमें सहभागी होना है। इसे "यीशु का मरना" क्यों कहा जाता है? क्योंकि यीशु ही वह पहला व्यक्ति था जो आत्म (अहम्) की मृत्यु और इस संसार की बातों के प्रति मृत्यु के मार्ग पर चला। वह हरेक ऐसी बात के लिए मरा जो मानवीय थी, और इस तरह उसने पिता की महिमा को प्रकट किया। आपको और मुझे यीशु के पदचिन्हों में चलने के लिए बुलाया गया है।

2 कुरिन्थियों 4:17-18 में, पौलुस कहता है, "जिन क्लेशों में से हम गुजरते हैं, ये बहुत ही मामूली और हल्के-से हैं क्योंकि इनके द्वारा जो महिमा हममें प्रकट होने वाली है वह बहुत महान और जबरदस्त है"। लेकिन यह महिमा हममें सिर्फ तब तक ही आ सकती है, जब तक हम “उन बातों को देखते रहेंगे जो नजर नहीं आती, और उन बातों की ओर देखने से इनकार करते रहेंगे जो नज़र आती हैँ" (2 कुरिन्थियों 4:18)। इसका अर्थ है कि हम अपनी किसी भी पीड़ा की तरफ मानवीय नहीं बल्कि ईश्वरीय दृष्टिकोण से देखते हैं। एक महिमा है जो इन परीक्षाओं के माध्यम से हमारे जीवनों में कार्यरत होती है और हम यीशु के ह्रदय के साथ ज्यादा नजदीकी संगति में आते हैं। इसलिए हम उत्साहित होते है, और हमारे सेवकाई पाने का यही तरीका है। हमें केवल परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने से ही सेवकाई प्राप्त नहीं होती।